भारतीय सिनेमा के समृद्ध कैनवस में यदि कोई नाम सबसे उज्जवल रूप में चमकता है, तो वह है यश चोपड़ा। "रोमांस के बादशाह" के रूप में मशहूर यश चोपड़ा ने अपनी कहानी कहने की अनोखी शैली, खूबसूरत दृश्यों, मधुर संगीत और भावनात्मक गहराई से बॉलीवुड को एक नया रूप दिया। उनके पांच दशकों से भी लंबे करियर ने हिंदी सिनेमा की दिशा ही बदल दी और दुनिया को प्रेम की एक नई सिनेमाई भाषा सिखाई।
प्रारंभिक जीवन और सिनेमा में प्रवेश
यश राज चोपड़ा का जन्म 27 सितंबर 1932 को लाहौर (ब्रिटिश भारत) में हुआ था। शुरुआत में वे इंजीनियर बनने का सपना देखते थे, लेकिन किस्मत उन्हें एक अलग रास्ते पर ले आई। उन्हें कहानी कहने में गहरी रुचि थी, और इसी जुनून ने उन्हें अपने बड़े भाई बी. आर. चोपड़ा के साथ काम करने के लिए प्रेरित किया, जो उस समय एक सफल फिल्म निर्माता थे।
बी. आर. फिल्म्स के तहत यश चोपड़ा ने अपनी पहली फिल्म "धूल का फूल" (1959) निर्देशित की — एक सामाजिक विषय पर आधारित फिल्म जिसने दर्शकों और आलोचकों दोनों का दिल जीत लिया।
इसके बाद उन्होंने "धर्मपुत्र" (1961) बनाई, जो सांप्रदायिक तनावों पर एक साहसिक फिल्म थी। इसने दिखाया कि यश चोपड़ा शुरुआत से ही सामाजिक मुद्दों पर बात करने से नहीं कतराते थे। हालांकि, आने वाले वर्षों में उनकी खासियत बन गई रोमांटिक और भावनात्मक कहानियाँ।
एक रोमांटिक दृष्टिकोण की शुरुआत
1970 और 1980 के दशक में यश चोपड़ा ने एक निर्देशक के रूप में अपनी पहचान पक्की कर ली। उन्होंने उस समय की कुछ कालजयी फिल्में बनाईं:
इन फिल्मों में न केवल बॉलीवुड के शीर्ष सितारों के दमदार अभिनय थे, बल्कि इनमें प्रेम, बलिदान और भावनाओं की गहराई को एक अनोखे अंदाज़ में दिखाया गया। इनकी कवितात्मक संवाद शैली, स्विट्ज़रलैंड जैसे सुंदर लोकेशन्स पर फिल्मांकन और दिल को छू लेने वाला संगीत यश चोपड़ा की पहचान बन गया।
"कभी कभी" और "सिलसिला" आज भी रोमांटिक क्लासिक्स के रूप में मानी जाती हैं क्योंकि इनमें वयस्क रिश्तों को बड़े संवेदनशील ढंग से प्रस्तुत किया गया था।
यश राज फिल्म्स की स्थापना
1973 में यश चोपड़ा ने अपनी खुद की प्रोडक्शन कंपनी यश राज फिल्म्स (YRF) की स्थापना की। यह कदम सिर्फ उनके लिए ही नहीं बल्कि पूरी इंडस्ट्री के लिए एक मील का पत्थर साबित हुआ। YRF ने उच्च गुणवत्ता वाली सिनेमा की पहचान बना ली और समय के साथ यह भारत की सबसे बड़ी फिल्म कंपनियों में से एक बन गई।
यश चोपड़ा के निर्देशन में YRF के तहत बनीं प्रमुख फिल्में:
शाहरुख़ ख़ान और यश चोपड़ा की जोड़ी
1990 के दशक के उत्तरार्ध में यश चोपड़ा को रोमांस का नया चेहरा मिला — शाहरुख़ ख़ान। इस जोड़ी ने 1997 की फिल्म "दिल तो पागल है" में अपने रिश्ते की चरम ऊंचाई पर पहुंच बनाई। यह फिल्म आधुनिक, शहरी प्रेम को लेकर थी और एक बहुत बड़ी हिट साबित हुई।
उनकी अंतिम फिल्म "जब तक है जान" (2012) भी शाहरुख़ ख़ान के साथ थी, जिसमें कटरीना कैफ और अनुष्का शर्मा ने भी अभिनय किया। यह फिल्म यश चोपड़ा के निधन के बाद रिलीज़ हुई थी।
पुरस्कार और सम्मान
यश चोपड़ा को भारतीय सिनेमा में उनके योगदान के लिए अनेक सम्मान मिले:
इसके अलावा उन्हें BAFTA सहित कई अंतरराष्ट्रीय संस्थानों द्वारा भी सम्मानित किया गया। उन्हें कई विश्वविद्यालयों द्वारा मानद उपाधियाँ भी दी गईं।
चोपड़ा स्टाइल: शैली और संवेदना
यश चोपड़ा की पहचान सिर्फ प्रेम कहानियों तक सीमित नहीं थी, बल्कि उनकी खासियत थी उन्हें प्रस्तुत करने का अंदाज़:
एक अमर विरासत
यश चोपड़ा का निधन 21 अक्टूबर 2012 को हुआ, लेकिन उनका सिनेमा आज भी जीवित है। उनके बेटे आदित्य चोपड़ा ने YRF की बागडोर संभाली और "दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे", "वीर-ज़ारा", "वार" और "टाइगर" जैसी फिल्मों का निर्माण किया।
हालांकि समय के साथ फिल्में बदल रही हैं, लेकिन यश चोपड़ा की फिल्में आज भी दिलों को वैसे ही छूती हैं — प्रेम, भावना और इंसानियत से भरी हुई।
यश चोपड़ा केवल एक निर्देशक नहीं थे — वे एक सपनों के बुनकर थे। उन्होंने हमें प्रेम करना सिखाया, तड़प को महसूस करना सिखाया, और भावनाओं की खूबसूरती पर विश्वास करना सिखाया। उनकी फिल्में सिर्फ देखी नहीं जातीं — उन्हें जिया जाता है।
आज भी जब किसी फिल्म में वायलिन की धुन बजती है, जोड़ा स्विस आल्प्स में नाचता है, या बारिश में कोई भावुक इज़हार होता है — तो दिल कह उठता है, "यह यश चोपड़ा की फिल्म है।"
उनकी विरासत अमर है। उनकी कहानियाँ कालातीत हैं। और उनका प्रभाव असीमित।
Image Credit: Hindustan Times
हिंदी सिनेमा की चकाचौंध के पीछे, खासकर 1970 और 1980 के दशक में, एक खामोश क्रांति चल रही थी। मुख्यधारा की फिल्मों की चमक-दमक से दूर, यथार्थ और मानवीय अनुभवों पर आधारित एक नई पीढ़ी की फिल्में उभर रही थीं। इस आंदोलन से जुड़ी कई प्रतिभाओं के बीच, दीप्ति नवल और फारूक शेख की जोड़ी कुछ अलग ही थी।
फिल्म इंडस्ट्री में जहां उम्र बढ़ने के साथ महिलाओं को किनारे कर दिया जाता है, जहां अक्सर रूप रंग को प्रतिभा से ऊपर रखा जाता है, वहां नीना गुप्ता ने मानो पूरी व्यवस्था को पलट कर रख दिया है। एक समय पर उन्हें स्टीरियोटाइप किरदारों में बांध दिया गया था, लेकिन आज वे मिड-लाइफ क्रांति का चेहरा बन चुकी हैं। उन्होंने सिर्फ फिल्मों में वापसी नहीं की — बल्कि खुद को नया रूप दिया और उम्रदराज महिलाओं की छवि को फिर से परिभाषित किया। उनकी कहानी सिर्फ फिल्मों की नहीं है; ये साहसिक फैसलों, आत्मबल और उस आंतरिक विश्वास की कहानी है, जो एक ऐसी महिला के अंदर था जिसने दुनिया से मुंह मोड़ने के बावजूद खुद पर विश्वास नहीं खोया।
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